अपने देश की सांस्कृतिक धरोहरों के प्रति मेरा लगाव बहुत ही प्राकृतिक रूप में हुआ है। जोकि मेरी सतत यात्राओं से उभरा है। इसकी शुरुआत देश को देखने से हुई और जैसे-जैसे भारत भ्रमण की मेरी यात्राएं पूरी होती गईं मेरे भीतर अपने देश की विविध संस्कृति के प्रति बहुत सम्मान जागना शुरू हुआ। बचपन से विद्यालय में सारे जहां से अच्छा हिंदुस्ता हमारा गाती आई थी। लेकिन क्यों है यह सारे जहां से अच्छा? इसे मैंने अपनी आंखों से देखकर, छूकर,महसूस करके जाना है।
अच्छी बात यह है कि पिछले 10 वर्षों में हमारे देश की सांस्कृतिक धरोहरों को यूनेस्को विश्व सांस्कृतिक धरोहर की सूची में स्थान मिलने लगा है। कहने को तो यह प्रक्रिया बहुत जटिल है। क्योंकि यूनेस्को विश्व धरोहर सूची में स्थान पाना आसान नहीं है। इसके लिए उसे धरोहर का अनोखा होना और साथ ही वर्तमान में उसे धरोहर को कितना संजोग के रखा गया है। यह भी बहुत महत्वपूर्ण कारक होते हैं।
मैं अपने दो दशकों के यायावरी के जीवन में देश के कोने-कोने में इन धरोहरों को देखती आ रही हूं। लेकिन अभी भी बहुत सारी धरोहर ऐसी है जो बाकी है, तो मुझे जब भी मौका मिलता है मैं बस निकल पड़ती हूं अपनी सांस्कृतिक धरोहर से मिलने और यह जानने कि यदि उसने विश्व धरोहर सूची में या उससे संबंधित सूची में स्थान बनाया है तो क्यों ? आप सोचते होंगे यह जवाब तो गूगल पर भी मिल सकता है। इसके लिए इतनी लम्बी यात्राएं करने की क्या जरूरत है। लेकिन नहीं। मेरे सन्दर्भ में ये काफी नहीं। एक सच्चा यायावर उसी को सच मानता है जिसको वह अपनी आंखों से देखा हो।
इस बार उड़ीसा राज्य की राजधानी भुवनेश्वर का रुख किया। भुवनेश्वर जिसे मंदिरों का शहर कहा जाता है। इस नगर ने यूनेस्को विश्व धरोहर की संबंधित सूची में जगह बनाई है । भुवनेश्वर उड़ीसा की राजधानी होने के बावजूद सुकून भरी जगह है। यहां किसी को कहीं जाने की जल्दी नहीं है। लोग भाग नहीं रहे हैं। चहल कदमी कर रहे हैं, टहल रहे हैं। सांस ले रहे हैं। जी रहे हैं। और जितने सहज भाव से यहां लोग शुद्ध हवा में सांस ले रहे हैं उतर ही सहज भाव से यह स्मारक भी सांस ले रहे हैं। मैं जैसे-जैसे एकाम्र क्षेत्र के नजदीक पहुंच रही हूं। मेरे मन में कई सवाल पैदा हो रहे हैं इस जगह का नाम एकाम्र क्षेत्र क्यों पड़ा?
मैंने यहां लोगों से सवाल पूछना शुरू किया इस जगह का नाम एकाम्र क्षेत्र कैसे पड़ा? कुछ लोगों ने बताया कि एकाम्र क्षेत्र इसलिए कहा गया क्योंकि अतीत में यहां पर आम के पेड़ हुआ करते थे। यही सवाल जब मैंने लिंगराज मंदिर के पुरोहित से पूछा तो उन्होंने एक बहुत ही दिलचस्प पौराणिक कहानी मेरे साथ साझा की। कहते हैं भगवान शिव और देवी पार्वती ने जब विवाह किया तो उन्होंने सबसे पहले काशी में बसने का फैसला किया। जब वह काशी में रहने लगे तो धीरे-धीरे काशी की आबादी इतनी बढ़ गई कि उन्हें शांति कम पड़ने लगी। शांति की तलाश में शिव और पार्वती काशी से पूर्व की ओर चले और वह उड़ीसा पहुंचे। तब यहां घना जंगल होता था। भगवान शिव ने एक आम के पेड़ के नीचे ध्यान लगाया और वह ध्यान में इतने मग्न हो गए कि वह अपने पीछे मां पार्वती को भूल आए। पार्वती मां जब भगवान शिव को खोजते खोजते यहां आईं तो उन्होंने देखा कि यह बहुत सारी गाय आम के पेड़ के नीचे खुद ही दूध दे रही हैं। माँ पार्वती तुरंत समझ गई कि शिव यहीं कहीं हैं। तब से इस क्षेत्र को एकाम्र क्षेत्र के रूप में जाना जाने लगा। इसे गुप्तकाशी भी कहा जाता है।
मंदिरों के शहर भुवनेश्वर के नामकरण की कहानी भी बहुत दिलचस्प है कहते हैं कि आज जहां लिंगराज मंदिर है वहां पर भगवान शिव प्राकृतिक रूप से प्रकट हुए थे जिन्हें स्वयंभू शिवलिंग कहा जाता है। इसी स्थान पर सातवीं शताब्दी में सोम वंश के राजा जजाति केशरी ने मंदिरों का निर्माण कराया और यहां लिंगराज मंदिर की स्थापना हुई। कहते हैं इस क्षेत्र में 700 से अधिक मंदिर होते थे। लिंगराज मंदिर एक एकाम्र क्षेत्र में एक शक्ति के केंद्र के रूप में स्थापित सबसे बड़ा मंदिर है, जिसकी परिधि में चारों दिशाओं में लगभग 50 छोटे-छोटे मंदिर हैं जो कि मां पार्वती को समर्पित है। इस स्थान पर भगवान स्वयंभू प्रकट हुए थे। भगवान शिव इस पूरे भुवन के ईश्वर हैं इसलिए स्थान को नाम मिला भुवनेश्वर।
लिंगराज मंदिर उड़ीसा की एक महान कीर्ति माना जाता है। उड़ीसा में जितने भी मंदिर है उन सब में सबसे महत्वपूर्ण मंदिर है और पूरे भारत में जितने भी शिव मंदिर हैं यह मंदिर उन सब का राजा है। इसीलिए इसको लिंगराज कहा जाता है। इस मंदिर को लगभग 1000 वर्ष पहले राजा यति केसरी, अनंत केसरी और लालतेंदु केसरी के शासनकाल में बना था। यह मंदिर कलिंग वास्तु शैली का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इस मंदिर का शिखर अमलक पत्थर से सुशोभित है एवं उसके ऊपर कलश स्थापित है। इस मंदिर की स्थापत्य कला की सूक्ष्म कारीगरी देखकर कोई भी चकित हो जाएगा। इस मंदिर को चार भागों में विभक्त किया गया है, श्री मंदिर, जगमोहन, नाट्य मंडप और भोग मंडप।
श्री लिंगराज मंदिर के के शिखर की ऊंचाई लगभग 520 और चौड़ाई 464 फुट तथा प्राचीर की ऊंचाई 10 फुट से 20 फीट तक होती है। इस प्राचीर के पूर्व उत्तर और दक्षिण में तीन द्वार है। लिंगराज मंदिर पुर्वोंन्मुखी है। इस द्वार को मुख्य द्वार या सिंह द्वार के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर के मुख्य द्वार को सिंह द्वार कहते हैं। मंदिर परिसर में सनातन धर्मियों के अलावा अन्य किसी धर्म के व्यक्ति का प्रवेश निषेध है लेकिन इनको मंदिर के दर्शन करने हेतु मंदिर के उत्तर द्वार के पास एक ऊंचा मचान बनाया गया है जिस पर चढ़कर लोग मंदिर को दूर से देख सकते हैं।
श्री लिंगराज मंदिर क्षेत्र को गुप्तकाशी और स्वर्ण आंचल नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस क्षेत्र पर हजारों शिवलिंग पूजे जाते हैं। यह बहुत ही ऊर्जा से भरा हुआ क्षेत्र है। इस मंदिर के आसपास असंख्यक मंदिरों के भग्नावशेष देखे जाते हैं। मंदिर के चारों ओर स्थापित अन्य देवी देवताओं के नाम इस प्रकार हैं। दक्षिण दिशा में श्री गणेश, पश्चिम दिशा में कार्तिकेय और उत्तर दिशा में माता पार्वती है। इन मूर्तियों के आकार विशाल हैं और उसमें बहुत ही बारिक नक्काशी की गई है। मंदिर की दीवार पर इंद्र, अग्नि, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, अष्टधक पाल, शिव विवाह, शिव पूजा, रामायण कथा, महाभारत कथा, नृत्य करतीं नर्तकियां, जीव जंतु, पशु पक्षियों आदि को शिल्पियों ने इतने संजीव ढंग से उकेरा है कि इनके जीवित होने का एहसास होता है। श्री लिंगराज मंदिर के प्रांगण में अनेक देवी देवताओं की बहुत से छोटे-बड़े मंदिर है। इन मंदिरों में श्री गणेश, नरसिंह, सावित्री, बैजनाथ, शत्रुघ्न, विश्वकर्मा, शिवकली, एकामेश्वर, माता पार्वती भुवनेश्वरी, मंगला, लक्ष्मी नारायण, सूर्य नारायण, वृषभ, बड़ा गणेश ,कार्तिकेय इत्यादि देवी देवता विराजमान है। कहते हैं श्री लिंगराज भगवान का वाहन वृषभ है इसलिए महाप्रभु के सामने एक मंडप पर प्रस्तर की एक बड़ी मूर्ति भी स्थापित है। यह मान्यता है कि इस नन्दी के कान में अपनी इच्छा कहने से इच्छा की पूर्ति होती है।
मंदिर में वर्ष भर अनेक उत्सव मनाए जाते हैं जिसमें पौष महीने में पुष्प अभिषेक, मकर संक्रांति,माघ सप्तमी, शिव चतुर्दशी आदि उल्लेखनीय है। जिस प्रकार पुरी के जगन्नाथ जी की रथ यात्रा होती है उसी प्रकार लिंगराज मंदिर के से जुड़ी हुई एक रथ यात्रा जिसे अशोक अष्टमी रथ यात्रा कहते हैं। महाप्रभु श्री लिंगराज की रथ यात्रा हर वर्ष चैत्र माह शुक्ल अष्टमी तिथि के दिन अनुष्ठित होती है। यह रथ यात्रा अशोक अष्टमी रथ यात्रा या रुकणा रथ यात्रा के नाम से जानी जाती है। श्री लिंगराज भगवान के रथ की ऊंचाई 35 फुट और चौड़ाई 28 फुट होती है चार पहियों वाले इस रथ के पहिए बहुत ही मजबूती से तैयार किए जाते हैं। इसमें लकड़ी से तैयार कर घोड़े, रंगीन कपड़ा, ध्वज तथा पास में देवी देवताओं की मूर्तियां लगाई जाती है। इस रथ को रामेश्वर मंदिर तक खींचते हुए ले जाते हैं इस अवसर पर पूरे अनुष्ठान के साथ भगवान को मंदिर से बाहर लाया जाता है और शोभा यात्रा निकाली जाती है। यह रथ यात्रा 5 दिनों तक चलती है। रामेश्वर मंदिर पर चार दिनों तक रहने के बाद श्री लिंगराज महाप्रभु श्री मंदिर पर वापस आते हैं। इस प्रथा को बाहुडा यात्रा भी कहा जाता है।
रुकणा रथ में जिस रस्सी का उपयोग किया जाता है वही रस्सी पुरी में होने वाली रथ यात्रा पर माता सुभद्रा के रथ की रस्सी के रूप में इस्तेमाल होती है। यह प्राचीन परंपरा है जिसका पालन आज भी किया जाता है और पुरी की रथ यात्रा पूरी होने के बाद इस रस्सी को वापस लिंगराज मंदिर में लाया जाता है।
रथ यात्रा के अलावा एक और यात्रा बड़े ही धूमधाम से मनाई जाती है जिसे चंदन यात्रा कहते हैं। जिसमें महाप्रभु श्री लिंगराज वैशाख माह में 22 दिनों के तक के लिए एक यात्रा पर जाते हैं। इसमें लिंगराज मंदिर के नजदीक ही बिंदु सागर नाम का एक तालाब है वहां की यात्रा दो नाव पर करते हैं। इस यात्रा की भी बड़ी महिमा है। जेठ माह में शिव विवाह कार्यक्रम का आयोजन होता है। इस विवाह में किए जाने वाले सभी अनुष्ठानों को किया जाता है। इसी तरह मर्गाशिर महीने की कृष्ण अष्टमी तिथि पर श्री लिंगराज महाप्रभु का प्रथम अष्टमी का उत्सव मनाया जाता है और शोभायात्रा निकाली जाती है। फागुन महीने में धूल पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाता है। इस अवसर पर मंदिर प्रांगण में ढोल मंच पर एक आसन पर भगवान जी को सुगंधित फूल और चंदन का लेप लगाकर विराजमान किया जाता है और भक्त बड़ी संख्या में आकर प्रभु को प्रसाद और गुलाल लगाते हैं।
लिंगराज मंदिर क्षेत्र में बहुत सारे तालाब देखने को मिलते हैं जिनका उपयोग मंदिर में जलाभिषेक करने के लिए जल की आपूर्ति करने के उद्देश्य से निर्माण किया गया था। एकाम्र क्षेत्र में जो सबसे बड़ा तालाब है उसका नाम बिंदु सागर है इसके अलावा पाप नश्नीकुंड, नलकुंड, गौरीकुंड, मरीचि कुंड, राम कुंड कोटि तीर्थ कुंड, देवी पद हर कुंड, भीम कुंड, नागेश्वर, कुंड कुकड़ेश्वर कुंड, कपिलेश्वर कुंड, गंगा जमुना कुंड, चिंतामणि ईश्वर, पुष्कारिणी, अशोक आचार्य कुंड बनाए गए हैं।
सभी कुंडों में सबसे ज्यादा बड़ा बिंदु सागर है। कहते हैं यह कुंड बहुत सी पवित्र नदियों की बूंद बूंद जल से निर्मित हुआ है। इसलिए इसका नाम बिंदु सागर रखा गया। इस कुंड में ही महाप्रभु लिंगराज जी की चंदन यात्रा आयोजित की जाती है। यहां एक और कुंड है जिसका नाम देवी पादरा कुंड कहा जाता है। इस कुंड के पास माता पार्वती ने दो असुरों को मुक्ति दिलाई थी। आज भी इस तालाब के चारों ओर शिव मंदिर देखने को मिलते हैं। यहां एक और प्रसिद्ध कुंड है जिसका नाम मरीचि कुंड है। कहते हैं अशोक अष्टमी रथ यात्रा की एक रात पहले केदार गौरी मंदिर और मुक्तेश्वर मंदिर की प्रांगण में स्थित मरीचि कुंड के जल में जिन स्त्रियों को संतान प्राप्ति नहीं होती है वह अगर स्नान करती हैं तो उन्हें संतान की प्राप्ति हो जाती है।
एकाम्र क्षेत्र में जहां लिंगराज मंदिर आस्था का मुख्य केंद्र है वहीं स्थापत्य कला प्रेमियों के लिए यह पूरा क्षेत्र कला के विस्तार का क्षेत्र है। यहां मात्र कुछ किलोमीटर के दायरे में ही अनेक ऐसे सुंदर मंदिर हैं जिनका स्थापत्य कला देखते ही बनती है। यह मंदिर बलुआ पत्थरों की संरचना है जिनकी वास्तु कला बहुत समृद्ध है।
यहाँ के लोगों की मानें तो, शहर में कभी एक हजार मंदिर थे, दुख की बात है कि इनमें से कई मंदिर नष्ट हो गए हैं और कई को आधुनिक संरचनाओं में पुनर्निर्मित किया गया है। दो हजार वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद भी कुछ मंदिर आज भी अपने पूर्ण वैभव के साथ न सिर्फ खड़े हैं बल्कि मंदिर स्थापत्य की सुन्दर मिसाल हैं। ये न सिर्फ एक जीवित जाग्रत नगर है जोकि दो हजार वर्षों से ऐसे ही चला आ रहा है। ये पूरा क्षेत्र कलिंग स्थापत्यकला का अनुपम उदहारण प्रस्तुत करता है। ये पुराने शहर का वो हिस्सा है जिसके केंद्र में लिंगराज मंदिर है और आसपास अनेक महत्वपूर्ण मंदिर स्थित हैं।
एकाम्र क्षेत्र में कुल ऐतिहासिक संरचनाएं- 199 हैं जिनमें केंद्रीय संरक्षित स्मारक – 23 और राज्य संरक्षित स्मारक –11 हैं। यहाँ कुछ बहुत सुन्दर स्मारक मौजूद हैं जैसे अष्टशंभू शिव मंदिर,अनंत वासुदेव मंदिर, भरतेश्वर मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, लखमनेश्वर मंदिर,राजरानी मंदिर, मुक्तेश्वर महादेव मंदिर, श्री बैताल मंदिर,मेघेश्वर मंदिर, रामेश्वर मंदिर और चित्रकारिणी मंदिर। इन मंदिरों का रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है।
भुवनेश्वर स्थित एकाम्र क्षेत्र की सबसे सुन्दर बात उसका सहज भाव है। यहाँ के अधिकतर मंदिरों का रखरखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किये जाने से यह मंदिर अच्छी स्थिति में हैं। बड़ी आसानी से मंदिरों को देखा जा सकता है। लिंगराज मंदिर में थोड़ा भीड़ रहती है लेकिन बाकी मंदिर खुले रहते हैं। सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक आप यहाँ जा सकते हैं।
इन मंदिरों की वास्तुकला मुख्य रूप से नागर, वेसर, द्रविड़ और गडग शैलियों में विभाजित हैं। कलिंग वास्तुकला नागर वास्तुकला के अंतर्गत ही आती है लेकिन यह ओडिशा और बंगाल में कुछ इस प्रकार फली फूली कि इस शैली ने अपनी एक अलग पहचान विकसित की, जिसका प्रमाण ये भव्य मंदिर हैं। इस शैली में इंडो-आर्यन शैली की सुन्दर झलक देखने को मिलती है। यहाँ तीन प्रकार के मंदिर देखने को मिलते हैं। रेखा देउला, पीढ़ा देउला और खाखरा देउला। इनमे पहले वाले दो प्रकार के मंदिर भगवान विष्णु, सूर्य और शिव मंदिरों से संबद्ध रखते हैं जबकि तीसरा मुख्य रूप से चामुंडा और दुर्गा के मंदिर हैं। रेखा देउला और खाखरा देउला मंदिरों में गर्भगृह होता है जबकि पीढ़ा देउला मंदिरों में नृत्य और भगवान को भेंट देने हेतु एक हॉल होता है।
रेखा देउला के कुछ बेहतरीन उदाहरण में लिंगराज मंदिर आता है। इसमें वरीयता के क्रम में एक एक संरचना बराबर बराबर एक रेखा में बनी होती है। लिंगराज मंदिर में एक विमान है (गर्भगृह युक्त संरचना), जगमोहन(असेंबली हॉल), नाट्य मंदिर (फेस्टिवल हॉल) और भोग मंडप (प्रसाद का हॉल)।
भुवनेश्वर में पीढ़ा देउला श्रेणी के मंदिर नहीं हैं यहाँ खाखरा देउला मंदिर हैं। प्रसिद्ध बैताला एवं गौरी मंदिर इसी शैली का है। लिंगराज मंदिर के अलावा यहाँ कई और महत्वपुर्ण मंदिर हैं जिसमें भगवान शिव को समर्पित मुक्तेश्वर मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजवंश के राजा ययाति प्रथम द्वारा किया गया था इस मंदिर का निर्माण 10वीं शताब्दी में हुआ था। इस मंदिर की सुन्दर वास्तुकला के चलते इसे कलिंग वास्तुकला के रत्न के रूप में माना जाता है। इस मंदिर का मुख पश्चिम की ओर है और एक समूह के बीच निचले तहखाने में बनाया गया है। मंदिर एक अष्टकोणीय परिसर में घिरा हुआ है।जो अष्टकोणीय के प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करता है। मंदिर की दो संरचनाएँ हैं, अर्थात्:विमान और मुखशाला दोनों प्रमुख हॉल हैं जो एक ऊंचे प्लेटफार्म पर बने हैं। शिखर पर चार नटराज और कीर्तिमुख हैं। इस मंदिर का मुख्य आकर्षण इसके विशेष प्रकार के तोरण की संरचना है। जोकि किसी और मंदिर में नहीं है। यह पश्चिमोंमुखी मंदिर है।
दूसरा सुन्दर मंदिर राजरानी मंदिर है जिसका निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था। यह पूरबोंमुखी मंदिर है। ये मंदिर है एक ऊंचे मंच पर पंचरथ शैली में निर्मित है। इस मंदिर के अंदर देवी प्रतिमा नहीं है। मंदिर की बाहरी दीवारें सुन्दर मूर्तिकला से सुशोभित है।
हम जैसे ही हाईवे 316 से भुवनेश्वर के प्राचीन एक एकाम्र क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो हमें सबसे पहले मेघेश्वर मंदिर देखने को मिलता है। इस मंदिर का निर्माण गंगा राजा राज राजा की पत्नी के भाई स्वप्नेश्वर ने करवाया था।
इस बात का प्रमाण एक शिलालेख से मिलता है यह शिलालेख राजे राजा के भाई आनंद भीम के शासन काल का है जिन्होंने 1192 और 495 के बीच तीन वर्ष के लिए शासन किया था। यह पश्चिमोंमुखी मंदिर है।
इस मंदिर से आगे थोड़ी सी दूरी पर ही हमें ब्रह्मेश्वर मंदिर देखने को मिलता है। यह मंदिर एक एकाम्र क्षेत्र के सबसे पुराने मंदिरों में से एक मंदिर है जो कि भगवान शिव को समर्पित है। माना जाता है कि 11वीं शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण उड़ीसा के सोमवंशी राजवंश की रानी कोलावती देवी ने करवाया था।
इस मंदिर के दीवारों पर सुंदर मूर्तियां बनी हुई हैं। यह मंदिर पंचायत मंदिर के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, इसमें मुख्यमंत्री के चारों कोनों पर अन्य चार छोटे मंदिर होते हैं, और साथ ही एक बड़ा तालाब होता है। यह मंदिर बलुआ पत्थर से बना हुआ है। इस मंदिर के चार भाग हैं जिसमें विमान यानी गर्भ ग्रह, नृत्य मंदिर जगमोहन यानी प्रार्थना कक्ष और भोग मंडप यानी के भगवान को अर्पित किए जाने वाले प्रसाद हेतु कक्ष शामिल हैं। इस मंदिर के गर्भ ग्रह में काले रंग का पत्थर का शिवलिंग स्थापित है। यह पूरबोंमुखी मंदिर है।
यहां मुख्य सड़क से लगा हुआ एक और सुंदर मंदिर है जिसका नाम भास्करेश्वर मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण गंग राजवंश के समय में लगभग 12वीं शताब्दी में हुआ यह मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर स्थित है। इसके भीतर 3 मीटर ऊंचा शिवलिंग स्थापित है, जिसकी परिधि 4 मीटर मानी जाती है। इस चबूतरे की ऊंचाई लगभग 4 मीटर है और चबूतरा के ऊपर 9 मंजिला देवला है। यह पश्चिमोंमुखी मंदिर है।
लिंगराज मंदिर से लगा हुआ ही एक और अद्भुत मंदिर है जिसे चित्रकारिणी मंदिर के नाम से जाना जाता है। इसका रखरखाव बहुत अच्छी तरह से हुआ है। इस मंदिर का निर्माण पूर्वी गंगा राजवंश के वैष्णव राजाओं में से एक नरसिंह देव-1 ने 1238 से 1264 ई.। के बीच करवाया था। यह मंदिर देवी चित्रकारिणी को समर्पित है। देवी चित्रकारिणी सरस्वती माँ का ही एक रूप मानी जाती हैं। यह पूरबोंमुखी मंदिर है।
लिंगराज मंदिर के नजदीक ही अनंत वासुदेव मंदिर बिंदु सागर कुंड के सामने स्थित है। इस मंदिर का निर्माण पूर्वी गंगा राजवंश की रानी चंद्रिका देवी ने 13वीं शताब्दी में करवाया था। यह मंदिर भगवान वासुदेव (कृष्ण), भगवान अनंत (बलराम) और देवी शुभद्रा को समर्पित हैं।
इस मंदिर का मुख्य आकर्षण यहाँ की रसोई है, जहाँ पूरी के जगन्नाथ जी के मंदिर की तर्ज पर मिटटी के पात्रों में भोग बनता है। यह पहले भगवान को चढ़ाया जाता है, फिर भक्तों के लिए भोग बाजार में उपलब्ध करवाया जाता है।
लिंगराज मंदिर के नजदीक ही बैताला देउला 8वीं सदी में निर्मित मंदिर स्थित है। खाकरा शैली का मंदिर देवी चामुंडा को समर्पित हैं। माना जाता है कि इसके तीन शिखर देवी चामुंडा की तीन शक्तियां सरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस मंदिर को बहुत सुन्दर मूर्तिकला से सजाया गया है। आकार में छोटा होने के बावजूद ये बहुत अद्भुत मंदिर है। यह पूरबोंमुखी मंदिर है।
लिंगराज मंदिर से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर तीन मंदिरों का एक समूह है। जिसमें सबसे बड़ा मंदिर -रामेश्वर मंदिर माना जाता है जिससे लगा हुआ एक बड़ा कुंड भी है। वहीं सड़क के उस पार लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न मंदिर एक ही परिसर में स्थित हैं। इन्हें शत्रुघ्नेश्वर मंदिर समूह के नाम से भी जाना जाता है।
ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण 9वीं शताब्दी ई. के प्रारम्भ में सोमवंशी राजवंश के शासनकाल में हुआ था। यह कलिंग मंदिरों की रेखा देउला श्रेणी के अंतर्गत आता है। इस रामेश्वर मंदिर को मौसी मां का मंदिर भी कहा जाता है। चैत्र महीने के 8वें दिन होने वाली रुकणा यात्रा में भगवान लिंगराज अपने मंदिर से यहीं आते हैं।
लिंगराज मंदिर के पीछे तंग गलियों के पार जाकर एक प्राचीन मंदिर है जिसका नाम कपिलेश्वर मंदिर है। इस मंदिर के साथ एक कुंड है, जिसे मणिकर्णिका या गुप्तकाशी भी कहते हैं। भगवान शिव को समर्पित 62 फुट ऊंचा मंदिर देखने योग्य है। यहाँ फोटोग्राफी निषेध है। एकाम्र क्षेत्र की सबसे सुन्दर बात इस प्राचीन मंदिर नगर का सहज और सरल होना है । यहाँ बहुत ही सहज भाव से आप मंदिरों के दर्शन कर सकते हैं ।